चलते रहते हैं मुसाफिर, अपने आशियाने कि तलाश में.....क्या अचरज है,
ठहरते हैं कुछ अरसा, फिर जारी रखते हैं सफर को.....क्या अचरज है,
टकराती हैं राहें किसी मोड़ पर, मिलते हैं नसीब इत्तिफ़ाक़ से...क्या अचरज है,
हँसते हुए बढ़ जाते हैं आगे, क्योंकि मंज़िल तो सबकी मुख्तलिफ है....क्या अचरज है,
महज़ सामान है ज़स्बात, गठरी बाँधी और अगले सहर कोई और शहर...क्या अचरज है,
एतबार क्या करें किसी हमराही का, कल को ग़र गठरी उठाये हम ही चले जाए...
क्या अचरज है|