Wednesday, 17 May 2017

खोया हुआ खिलौना और टूटी हुई पेंसिल

छत पर बिछी जब दरी होती थी,
चाँद के पार एक परी होती थी,

ग़मो की गठरी का बस इतना था बोझ,
एक खोया हुआ खिलौना और टूटी हुई पेंसिल होती थी,

कट्टी और सॉरी का सिलसिला होता हर रोज़,
रिश्तों के सौदे कि गुफ़्तगू इतनी सस्ती होती थी,

प्रतिस्पर्धा यूँ शुरू और ख़त्म होती थी,
जब कागज़ की नाव से रेस दोस्तों संग होती थी,

खाली थे हाथ फिर भी ऊँची उड़ान होती थी,
जेब में भरी एक रंगीन तितली होती थी,

कितनी सरल वो ज़िंदगी होती थी,
टूटी गुल्लक से पायी जब चंद सिक्कों कि अमीरी होती थी,

गर्मी कि छुट्टियों में होता शाम का इंतज़ार,
बर्फ़ के लड्डू कि मिठास ऐसी मोहक होती थी,

क्लास में पूछती जब टीचर क्या बनना है,
पायलट और हीरो कहते हुए चहरे पर चमक होती थी,

ऊंची लगती जब मंदिर की घंटी थी,
बड़े होने की बड़ी जल्दी होती थी,

कैसे लौट आयें वो लड़कपन के दिन,
जब सुबह के बाद रात नहीं शामें भी होती थी |

1 comment:

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