एक बार एक साधु नदी किनारे जल ग्रहण कर रहा था| तभी उसने देखा के एक बिच्छु पानी में बह रहा है| साधु ने उसको बचाने कि अभिलाषा से अपने हाथों से उसे उठाने का प्रयत्न किया| ऐसा करने पर उस बिच्छु ने उसे काँट लिया| साधु ने उसे फिर से बचाने का प्रयत्न किया, किंतु पुन: बिच्छु ने उसे काँट लिया| यह क्रम सात बार चला| अंत में साधु उसे पानी से निकालने में सफल हुआ|
इस घटना को एक राहगीर देख रहा था| उसने साधु से उत्सुक्तावश प्रश्न किया- "जब बिच्छु आपको बार-बार काँट रहा था तो आपने उसे क्यूँ बचाया| " साधु ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया - "काँटना बिच्छु की प्रवृत्ति है और बचाना मेरी| यदि वह अपनी प्रवृत्ति नहीं त्याग सकता तो मैं अपनी प्रवृत्ति कैसे त्याग सकता हूँ|"
इस कथा से यह शिक्षण मिलता है की चाहे हमारे साथ कोई कैसा भी व्यवहार करे, हमे अपनी अच्छाई और सहजता नहीं छोड़ना चाहिए|
(This is the recollection of a story that I heard sometime back)
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