मैं सब वर्जनाएँ तोड़ना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,
ज़हरीले भुजंग से लिपटे तन पर,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,
पाषण सी पड़ती निगाहें मुझ पर,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,
बांधती जो गिरहें मुझ पर, कह कर इसे मुकद्दर,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,
मेरे पाकीज़ा दामन को कलंकित कर,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,
त्याग, क्षमा, ममता व देवी कि प्रतिमा का उपसर्ग जो दे मुझे,
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ
0 comments:
Post a Comment
Thanks for your awesome comment! I always look forward to it.