Friday, 22 August 2014

वर्जनाएँ


मैं सब वर्जनाएँ तोड़ना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,

ज़हरीले भुजंग से लिपटे तन पर,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,

पाषण सी पड़ती निगाहें मुझ पर,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,

बांधती जो गिरहें मुझ पर, कह कर इसे मुकद्दर,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,

मेरे पाकीज़ा दामन को कलंकित कर,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,

त्याग, क्षमा, ममता व देवी कि प्रतिमा का उपसर्ग जो दे मुझे,
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ

Friday, 15 August 2014

बातें


कुछ लोग करते हैं, कुछ नही,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,

कुछ चकित करती हैं, कुछ हर्षित करती हैं,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,

कुछ आंखों से होती हैं, कुछ ज़ुबान से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,

कुछ अनकही होती हैं, कुछ कहकहे लाती हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,

कुछ मासूम होती हैं, कुछ कर्कश,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,

कुछ से समय बीतता है, कुछ समय के साथ बीत जाती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,

कुछ हो जाती हैं, कुछ यूँ ही खो जाती हैं,
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं...

Tuesday, 12 August 2014

मुसाफिर



चलते रहते हैं मुसाफिर, अपने आशियाने कि तलाश में.....क्या अचरज है,
ठहरते हैं कुछ अरसा, फिर जारी रखते हैं सफर को.....क्या अचरज है,
टकराती हैं राहें किसी मोड़ पर, मिलते हैं नसीब इत्तिफ़ाक़ से...क्या अचरज है,
हँसते हुए बढ़ जाते हैं आगे, क्योंकि मंज़िल तो सबकी मुख्तलिफ है....क्या अचरज है,
महज़ सामान है ज़स्बात, गठरी बाँधी और अगले सहर कोई और शहर...क्या अचरज है,
एतबार क्या करें किसी हमराही का, कल को ग़र गठरी उठाये हम ही चले जाए...

क्या अचरज है|

Saturday, 9 August 2014

Everything need not last a lifetime, and yet some brief connects give us our moment of epiphany and leave us with a lifetime of memories.
Source-Internet

Saturday, 2 August 2014

नीर

कभी है यह निर्मल, निरभ्र, निर्झर, नटखट,
कभी खो जाता हो अकस्मात निश्चल, नीरव, निर्जल,

नदी बन कर बहता कल-कल,
तृप्त करता जन - जन कि क्षुधा बेकल,

सागर में भर जाता जैसे नीलम,
स्पर्श करता क्षितिज द्वारा नील गगन,

बह जाता नयन से हो निर्बल,
जैसे हो पावन गंगाजल,

प्रकृति के क्रोध का बनता माध्यम,
ले जाता जीवों का जीवन, भवन और आँगन,

धो देता कभी अस्थि के संग मानव पापों का भार,
गिरता धरा पर कभी बन रिमझिम बूँदों का दुलार,

देश विदेश कि सीमा से अपार,
यहां वहां बहता सनातन सदाबहार